तरतीब से सजे दर-ओ-दीवार घर नहीं
सुख-दुख में तेरे साथ अगर हमसफ़र नहीं
ऐसा नहीं कि राहे-सफ़र में शजर नहीं
आसाँ ये ज़िन्दगी की मगर रहगुज़र नहीं
उपदेश दूसरों को सभी लोग दे रहे
ख़ुद उन पे जो अमल करे ऐसा बशर नहीं
औरों के रंजो-ग़म से है अब किसको वास्ता
पहले सी रौनकें किसी चौपाल पर नहीं
जीवन की भागदौड़, चकाचौंध में बशर
खोया है इस कदर उसे ख़ुद की ख़बर नहीं
बस ख़्वाब देखते हैं जो साहिल पे बैठ कर
क़िस्मत में उनकी एक भी लालो-गुहर नहीं
छूटे जनम मरण का ये बन्धन तमाम अब
दरवेश की दुआ में भी जब वो असर नहीं
बशर – इनसान, लाल ओ गुहर – मोती और माणिक, दरवेश – फकीर