इंदौर के श्री निलेश शेवगाँवकर ‘नूर’ जी के ग़ज़ल कहने का अंदाज़ ही सबसे जुदा है, उनका लहजा समकालीन ग़ज़लकारों के बीच उन्हें अलग पहचान देता है। निलेश नूर साहब की ये ग़ज़ल एक आईना है; आज की परिस्थितियों का अक्स इसमें दिखाई देता है
–शिज्जु शकूर
बस किसी अवतार के आने का रस्ता देखना
बस्तियाँ जलती रहेंगी, तुम तमाशा देखना
छाँव तो फिर छाँव है लेकिन किसी बरगद तले
धूप खो कर जल न जाये कोई पौधा, देखना.
देखने से गो नहीं मक़्सूद जिस बेचैनी का
हर कोई कहता है फिर भी उस को “रस्ता देखना”
क़ामयाबी दे अगर तो ये भी मुझ को दे शुऊ’र
किस तरह दिल-आइने में अक्स ख़ुद का देखना.
चाँद में महबूब की सूरत नज़र आती नहीं
जब से आधे चाँद में आया है कासा देखना.
तीरगी फिर कर रही है घेरने की कोशिशें,
“नूर” है तेरा इसे तू ही ख़ुदाया देखना.
Meaning
कासा – कटोरा, अक्स – प्रतिबिंब