समझा समझा कर हरजाई थक गया मैं
समर कबीर साहिब उस्ताद का दर्जा रखते हैं और वे ग़ज़ल की शिल्प के प्रति सजग शाइर हैं । इस दौर के दूसरे शाइरों से भी वे उम्मीद करते हैं कि वे शिल्प और शब्दों के प्रयोग के प्रति सचेत रहें। सच ही तो है ग़ज़लगोई इतनी आसान नहीं है। उम्र गुज़रती है तब कहीं जाकर एक शे’र होता है। कुछ ग़लतियाँ नए ग़ज़लकारों में आम है, यह कि वो अपनी रचनाओं को पर्याप्त समय नहीं देते। समर कबीर साहिब ने अपनी ग़ज़ल द्वारा उन्हें सचेत करने कोशिश की है। यह ग़ज़ल 22 22 22 22 22 2 बहर पर आधारित है। इस बहर में आजकल अच्छी खासी चर्चाएँ चल रही हैं। शाइर इस कसी हुई गज़ल को बतौर मिसाल पेश कर सकते हैं।
समझा समझा कर हरजाई थक गया मैं
दुनिया फिर भी समझ न पाई थक गया मैं
मेरे घर में पाँव न रक्खा ख़ुशियों ने
बजा बजा कर ये शहनाई थक गया मैं
पूरा करते करते सात सवालों को
कहता है अब हातिम ताई थक गया मैं
जाहिल आक़िल को तस्लीम नहीं करते
करते करते उनसे लड़ाई थक गया मैं
मेरी बुराई करते करते आज तलक
थक न पाई सारी ख़ुदाई थक गया मैं
मैंने सबसे मिलना जुलना छोड़ दिया
दरवाज़े पर लिख दो भाई थक गया मैं
मिहनत मज़दूरी से पेट नहीं भरता
सहते सहते ये मँहगाई थक गया मैं
देखो मेरा हाथ “समर” के सर पर है
सच कहता हूँ ‘सौरभ’ भाई थक गया मैं